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क्रांतिकारी की कलम से …….

abhi
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हम बचपन से ही उन क्रांतिकारियों की वीर गाथाये सुनते आये है जिन्होंने स्वतंत्रता के वृक्ष को अपने लहू से सिंचित किया है, पर जब यह गाथाये किसी क्रन्तिकारी की कलम से निकलती है तब कलम में स्याही नहीं लहू भरा होता है उससे उकेरे गए शब्दों में वह ताप होती है जिसमे तप कर बलिदानी वीर कुंदन बने । ऐसे ही महानायक रचयिता थे क्रन्तिकारी साहित्यकार श्री यशपाल जी,इनके लिखे संस्मरण केवल इतिहास में घटी देखि सुनी घटनाये नहीं,अपितु वह पल थे जो इस महान क्रन्तिकारी ने उन महानायकों के संग जिए थे जिन्होंने वीरता की परिभाषा को एक नया आयाम दिया उन में से प्रमुख थे भगत सिंह , सुखदेव ,राजगुरु और चन्द्रशेखर आज़ाद । भगत सिंह और सुखदेव लाहौर के नेशनल कॉलेज में इनके सहपाठी थे । उनसे जुडी कई यादों को यशपाल जी ने अपने संस्मरणों में समेटा है उनमें से कुछ यहाँ प्रस्तुत है ।
यशपाल,सुखदेव और उनके चचेरे भाई जयदेव बोर्डिंग के एक ही कमरे में रहते थे जहाँ यशपाल और जयदेव पढने- लिखने में व्यस्त रहते थे वही सुखदेव ने पढ़ लिया तो पढ़ लिया नहीं पढ़ा तो न सही । सुखदेव के स्वाभाव के एक और लक्षण की वह बात करते है जो है ‘झोंक’ पता नहीं कब किस बात की झोंक आ जाये, जैसे एक बार उन्हें शारीर मजबूत बनाने की झोंक आ गयी तब उन्होंने नित्य कसरत और मालिश शुरू कर दी,कुर्ता भी पहलवानी ढंग का सिला लिया और पहलवानों के जैसे तहमत या लुंगी भी बांधनी शुरू कर दी यशपाल जी के शब्दों में-
”शारीर मेरे जैसा इकहरा होने पर भी बांहे ऐसे अकड़ाकर चलता था मनो पुट्ठे बहुत उभरे रहने के कारण बांहे पसलियों से दूर दूर रहती हो “। और कभी कभी तो वह ऐसे ही पहलवानी वेश में ही बाज़ार भी चल देते थे ।

ऐसी ही एक और झोंक में उन्होंने जुजुस्त्सू सीखने की किताब में पढ़ा था कि झगडे या मारपीट के समय अपने से अधिक बलवान परिद्वंदी को परस्त करने के लिए उसकी नाक में ज़ोरदार घूंसा जमा देना चहिये और इसी को परखने के लिए वह  निकल पड़े बाज़ार कि ओर उन दिनों गाँधी जी ने प्रत्येक मॉस कि 18 तारीख उपवास के लिए निश्चित कि थी सो सुखदेव का भी उस दिन उपवास था , बाज़ार में वो ऐसे बलवान व्यक्ति को खोजने लगे जिस पर यह नुस्खा आज़मा सके और दैववश ऐसा एक व्यक्ति उन्हें दिख भी गया और सुखदेव ने उसके समीप पहुंचकर एक घूंसा उसकी नाक में जड़ दिया और उसका प्रभाव देखने के लिए समीप ही खड़े रहे ,चोट खाने वाला व्यक्ति सचमुच कुछ क्षणों के लिए सुधबुध खो बैठा इस समय अगर वह चाहते तो वहां से भाग सकते थे पर वे वँही पर खड़े रहे कुछ देर बाद जब व्यक्ति संभला तो वह सुखदेव की ओर लपका दिनभर के भूखे सुखदेव जल्द ही उसके काबू में आ गए , लोगो ने बीच बचाव करके उन्हें छुड़ाया,उस व्यक्ति के पूछने पर कि उन्होंने उसे क्यों मारा उन्होंने कहा “मैंने मारा था, अब तुम मार लो “

ऐसे ही एक दिन जब वह अपने घर लायलपुर से लाहौर लौट रहे थे और उनके पास तीसरे दर्जे का टिकट था, गाड़ी आई, उसके एक डिब्बे में सिपाही भरे थे जो किसी और को डिब्बे में घुसने नहीं दे रहे थे उस समय उन्हें अपनी सहनशक्ति का परिक्षण करने की झोंक आ गयी और वह जबरदस्ती उस डिब्बे में चढ़ गए और सिपाहियों से कहा “मैं बैठता हू.. हिम्मत हो तो निकालो ” सिपाही यह कैसे सहन कर सकते थे कि एक हिन्दुस्तानी उन्हें चुनौती दे…और सुखदेव पर लात घूंसों कि बरसात शुरू हो गयी । सुखदेव बैठे मार खाते रहे उन्होंने प्रतिकार में हाथ नहीं उठाया,सिपाहियों ने उन्हें प्लेटफ़ॉर्म में फ़ेंक दिया । अगली गाड़ी से जब सुखदेव लाहौर पहुंचे तो उनका शरीर खूब सुजा हुआ था,उन्होंने अपना यह अनुभव सबको सुनाया और इस बात की विवेचना करते रहे कि अपने उद्दयेश की पूर्ती के लिए सत्याग्रह का मार्ग कैसे सफल हो सकता है ।
ऐसे थे वो देशभक्त जो अत्याचार की आंधी के समक्ष सुमेरु बन कर खड़े हो गए , ऐसे महापुरषों का प्रशस्ति गान तब तक गाया जाता रहेगा जब तक हिन्दुस्तानियों के हृदयों में देशभक्ति की ज्वाला प्रज्वलित रहेगी ।

..जय हिंद
(यशपाल जी के संस्मरणों से साभार)

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